देशद्रोहियों को फांसी हो, सुप्रीम कोर्ट करे पहल
प्रसून शुक्ला
बीजेपी के संकल्प पत्र (घोषणापत्र) में संविधान की धारा 370 और 35A को हटाने की बात दोहराई गई. कश्मीर के दोगले नेताओं की मानो लॉटरी लग गई. जनता के बीच पकड़ खो चुकी महबूबा मुफ्ती और फारुक अब्दुल्ला फिर भारत के साथ दोगलेपन पर उतारू हो गये. देश को तोड़ने की बात कर रहे हैं. इनकी भाषा आतंकवादियों से मिलती जुलती है. दुर्भाग्य है कि नमकहराम नेताओं पर देशद्रोह का मामला अभी तक दर्ज नहीं हुआ. मुस्लिम देशों में देशद्रोह की सजा फांसी है. फांसी की सजा महबूबा मुफ्ती, फारुक अब्दुल्ला जैसे नेताओं की आत्मा को भी सुकून दे सकती है. दोगलेपन की इंतहा इस हद तक है कि कश्मीर में इन्हें मुस्लिम बहुल समाज और कानून चाहिए. लेकिन पूरे भारत में इनको बहुलतावादी दृष्टिकोण वाला समाज चाहिए.
कश्मीर में कट्टरता और भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य की वकालत नहीं चलेगी. जो कश्मीर में होगा, वही पूरे भारत में दिखेगा. जो पूरे भारत में दिखेगा वही कश्मीर में होगा. अब सुप्रीम कोर्ट इन नेताओं पर देशद्रोह का फैसला करके तय करे कि कैसा भारत चाहिए. आग से खेलने वालों पर लगाम नहीं लगने के कारण ही देशवासी ठगा महसूस करता है. एक हत्यारे को फांसी वहीं कश्मीर में नरसंहार करने वालों को माफी क्यों मिले? अभी तक कश्मीर में लाखों कश्मीरी पंडितों के नरसंहार करने वाले दोषियों को फांसी क्यों नहीं हुई. फांसी छोड़िए ऐसे भेड़िये कश्मीर में राजनेता बने हुए हैं.
कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ ही क्यों? नरसंहार सरकार और न्याय पालिका की नपुंसकता के कारण हुआ. नपुंसकता सरकार और सुप्रीम कोर्ट की रही, देश की सवा सौ करोड़ जनसंख्या की नहीं. राष्ट्रवादी जनता का दबाव ही अब तक रहा है, जिसके चलते नपुंसक सरकारें भले ही कश्मीर में आंख मूंदे रहीं, लेकिन हिंदुस्तान की जनता की बहलाने और अपनी कुर्सी बचाने के लिए लोगों की आंख में धूल झोंकने के लिए झूठे तथ्य पेश करती रही हैं. दिल्ली और मुंबई में देश के कोने-कोने से लोग बस सकते हैं तो कश्मीर में क्यों नहीं. हिंदुवादी संस्कृति का केंद्र रहे कश्मीर में दोगले नेताओं ने साजिश रचकर स्थानीय संस्कृति को कुचला है. कश्मीरी इतिहास के प्रतीकों को ध्वंस करके मिटाने की साजिश करने में लगे हैं. उस कड़ी को नेस्तानाबूंद करने की फिराक में हैं जो कश्मीर को भारत से सदियों से जोड़े रखी है.
तमाम संवेदनशील मामलों में खुद पहल करके मामले को अपने हाथ में लेने वाली सुप्रीम कोर्ट की देश तोड़ने वाली ताकतों पर चुप्पी अखरती है. आखिर क्या मजबूरी है कि देश के संविधान की कसम खाने वाले उस समय चुप्पी साध जाते हैं जब देश की अखंडता को तार-तार करने की कोशिशें चलती हैं. संविधान की प्रस्तावना में ही व्यक्ति की गरिमा और देश की एकता और अखंडता उल्लेख है, जिसकी कसमें खाकर नेता और वकालत करने वाले संवैधानिक पदों पर विराजमान होते हैं. लेकिन इनकी चुप्पी से लगता है कि भारत के लोगों को ही देशद्रोहियों पर सीधा फैसला लेना होगा. ये फैसला हिंसक हो सकता है, कानून व्यवस्था के लिए खतरा पैदा कर सकता है, लेकिन हूजुर लोगों की चुप्पी लोगों को और कोई रास्ता नहीं मुहैया करा रही है.
राजनीतिक हत्याओं की सिलसिला उस समय देखने को मिलता है, जब देश की बहुसंख्यक जनता की संस्कृति और स्वाभिमान को सिलसिलेवार तरीके से कुचला जाता है. हिंदुस्तान का सौभाग्य है कि अभी ये सिलसिला यहां नहीं शुरू हुआ है. लेकिन एक बार शुरू होने पर पंथ निरपेक्षता की वकालत करने वालों की भी दलील धरी की धरी रह जायेगी. ये लेख बड़े देश की बड़ी आबादी की अकुलाहट को सरकार और न्याय पालिका के सामने लाने की एक सार्थक कोशिश है. हालात नहीं बदले तो मानकर चलिए जल्द ही जनता फैसला खुद सुनाना शुरू कर देगी. ऐसे में बेमानी हो चुकी न्यायपालिका और सरकार के सामने दशकों तक भारत एक रक्तरंजित क्रांति के दौर से गुजरता चलेगा. अब जनता आस लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर टकटकी लगाये हुए है कि देशद्रोह जैसे मामलों में तो देरी मत करिए सरकार!