भारत में सीबीआई के अंदर पारदर्शिता का मसला हो या न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति का. इन सवालों से दो चार होने पर अकसर मिशन वाली पत्रकारिता और कमीशन वाली पत्रकारिता पर बहस खड़ा हो जाता है. सवाल उठता है कि लोकतंत्र का चौथा खंभा कही जाने वाली संस्था क्या सचमुच पतित हो गई है. क्या जो कमियां आज मीडिया में नजर आती हैं, लोकतंत्र के तीन स्तंभों के कर्णधारों में नहीं दिखती हैं. इसका जिम्मेदार कौन है. एक शब्द में राजसत्ता.
इस बात को म्यांमार के पलायन करने वाले रोहिंग्या मुस्लिमों के पलायन से जोड़ दें तब भी कसूरवार राजसत्ता को माना जायेगा. सवाल है कि किन परिस्थितियों में रोहिंग्या विद्रोही इतने संगठित हो गये कि इसकी खबर म्यांमार के सामान्य प्रशासन के साथ वहां के खुफिया तंत्र भी नहीं लगा. ये बात मानी जा सकती है कि हमले का वक्त भले ही राजसत्ता के पहरुओं को नहीं मालूम चला होगा. लेकिन अवैध हथियारों की खेप लगातार आ रही हो, विद्रोही रोहिंग्या मुस्लिम लगातार एकजुट हो रहे हों, सभायें कर रहे हों और अलग राज्य स्थापित करने के लिए सशस्त्र आंदोलन चलाने की खुलेआम बात करते हों, फिर सरकार हस्तक्षेप नहीं करे तो राजसत्ता पर भी सवाल खड़े होते हैं. म्यांमार के रखाइन प्रांत में जैसे विद्रोहियों ने हमले किये. उसे सिर उठाने से पहले कुचला जा सकता था. लेकिन इन विद्रोहियों को लोकतंत्र की आड़ में कुछ राष्ट्रीय नेताओं और विदेशी ताकतों का संरक्षण मिलता है. जिसे काबू नहीं कर पाने के लिए दोषी सिर्फ सत्ता होती है.
भारत में अगर देखा जाये तो रखाइन प्रांत जैसे हालात कश्मीर में देखने को मिल जायेंगे. सत्ता जब कठोर फैसले लेने में कामयाब नहीं होती है तो राजसत्ता अपने नाकामयाबी का ठीकरा न्यायपालिका और मीडिया पर थोपने की कोशिश करती है. भूमंडलीकरण के दौर में जब बाजार सत्ता से ज्यादा प्रभावी होने लगे तो कमजोर राष्ट्रों के साथ कई बार मजबूत दिखने वाले राष्ट्रों के शासक भी अपने राष्ट्रहितों से समझौता करते दिख जाते हैं. इसकी जिम्मेदार केवल राजसत्ता होती है. मौजूदा परिपेक्ष्य में 30 साल से चली आ रही समस्या के लिए केवल एक सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते. लेकिन जवाबदेही तो केवल राजसत्ता की ही होती है.
नवमार्क्सवादी और विश्वप्रसिद्ध विचारक इटली के एंतोनिया ग्राम्सी ने अपनी 30 से ज्यादा निबंध लिखे, जिसे किताब के तौर पर ‘प्रिजिनर नोटबुक’ में छापा गया. ग्राम्सी को 1926 ईसा में इटली की फासिस्ट सरकार ने कैदी बनाकर जेल में डाल दिया गया. जिसने 1929 से 1935 के बीच राज्य और नागरिक के बीच रिश्ते का अद्भुत ज्ञान अपने निबंधों में उकेरा. 3000 से ज्यादा पृष्ठों का यह संकलन बीसवीं-इकीसवीं सदी के राजनीतिक सिंद्धात के लिए मील का पत्थर साबित हो रहा है.
शिक्षा के जरिए ही राजसत्ता अपने लोगों पर मानसिक प्रभुता(हेजोमनी) स्थापित कर लेती है. आगे ग्राम्सी ने लिखा कि श्रमिक वर्ग से बुद्धिजीवियों के विकास को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य विशिष्ट शिक्षा उपलब्ध कराती है. ताकि बिना संघर्ष लोगों के दिमाग में अपनी स्वीकार्यता स्थापित कर सके. शिक्षा के जरिए राजसत्ता अपने शासन का वैधानिक अधिकार स्थापित करती है. साथ ही स्किल्ड लेबर की खेप भी तैयार की जाती है. शिक्षा का आधार हमेशा राजसत्ता की जरूरतों के हिसाब से तय होता है. भारत के बारे में बात करें तो आजादी के बाद राजसत्ता भी ऐसे ही शिक्षा मॉडल को लागू किया. भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के समय विभाजन की पीड़ा दशकों तक बनी रहनी थी. मार्क्सवादी नेहरू जानबूझकर ऐसी शिक्षा का प्रचलन किया, जो विभाजन की पीड़ा भले ही कम करती, लेकिन दशकों बाद उससे बड़ी समस्या खड़ी होनी तय थी. जिसे अब हम कश्मीर से लेकर मुस्लिम बहुल प्रदेशों में देख सकते हैं. मौजूदा शिक्षा व्यवस्था ने बहुसंख्यक हिंदु समुदाय की कट्टरता को पनपने नहीं दिया. लेकिन आबादी में बड़ी हिस्सेदार मुस्लिम जनसंख्या की कट्टरता को कम करने की जरा भी कोशिश नहीं की गई. जिसका नतीजा है कि आज भी भारत का मुस्लिम समाज देश से ज्यादा खुद को धर्म के जुड़ाव को तरजीह देता है. जिससे विश्वव्यापी आतंकवाद से जोड़ने में आतंकवादियों को जरा भी दिक्कत नहीं आती. मीडिया भी मौजूदा शिक्षा प्रणाली की ही उपज है. सच्चाई से मुंह चुराना इसी शिक्षा प्रणाली की देन है.
ग्राम्सी ने कहा कि राष्ट्र की परिकल्पना को पूंजीवादी ताकतें अपने चंगुल में कस लेती हैं. आजादी के नाम पर पूंजीवाद राजसत्ता को बनाये रखने के औजार के तौर पर सांस्कृतिक आजादी को बढ़ावा देती हैं, ताकि कहीं भी वैश्विक बाजार संकुचित नहीं हो. पूंजीवादी की परिकल्पना में राष्ट्र से ज्यादा मायने बाजार रखता है. सत्ता रेगुलेटर की भूमिका में आ जाती है. भारत के संदर्भ में इसे ईस्ट इंडिया कंपनी की भूमिका को देखकर समझ सकते हैं. ग्राम्सी ने राजसत्ता के विशिष्ट सरकारी तंत्र का भी उल्लेख किया. ग्राम्सी की माने तो पुलिस, सेना और न्याय प्रणाली और नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) में विभेद को राजसत्ता बनाये रखना चाहती है. ताकि नेतृत्व को कई माध्यमों से मौन सहमति मिलती रहे. भारत के संदर्भ में इस थ्योरी पर पूरी तरह भले ही भरोसा नहीं करें, लेकिन किसी हद तक इनके तालमेल से इंकार भी नहीं किया जा सकता. इस संदर्भ में बस न्यायपालिका ही इस तारतम्यता का हिस्सा बनने को तैयार नहीं है.
सच्चे लोकतंत्र के तीन स्तंभ माने गए हैं, जो विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका में बंटी हुई है. उम्मीद की जाती है कि अपने कामकाज को निपटाने के क्रम में इन्हें किसी अनुचित दबाव में नहीं आना चाहिए. भारतीय लोकतंत्र में कार्यपालिका ने अपने ऊपर विधायिका की अधीनस्थता स्वीकार कर ली है. जिसकी कार्यप्रणाली अकसर विधायिका के बिना तानाशाही वाली प्रवृत्ति अपनाने की हो जाती है. जैसा इमरजेंसी में हुआ. कार्यपालिका आजादी के सात दशक बीतने के बाद भी जनता के लिए दुराग्रह से ग्रसित दिखती है. कार्यपालिका में अभिजात प्रवृत्ति के खात्मे के लिए विधायिका भी कोई कड़ा कदम उठाने में अकसर संकोच करती दिखती है. जिसके चलते ही लोकतंत्र के इस स्तंभ को सरकारी बाबू का खिताब मिला है.
जनसामान्य के जुड़े संवेदनशील मुद्दों पर न्यायपालिका कभी भी सरकार से समझौता करती नहीं दिखती. न्याय से ज्यादा सवाल साख का भी होता है. लेकिन निचली अदालतों में न्यायपालिका की कार्यप्रणाली कई सवाल खड़े करती है. जिसपर भारत के सुप्रीम कोर्ट के कई जजों ने भी तीखी टिप्पणी कई बार की है. सरकारी नीतियों में सर्वोच्च न्यायालय की लगातार दखल से सरकार भले ही चिढ़ती हो, लेकिन अभी तक के अनुभव यही बताते हैं कि न्यायपालिका की देशहित और लोकतंत्र के लिए सरकार के खिलाफ भी फैसला देने की प्रवृत्ति नहीं छूटी है. न्यायपालिका अपने कार्यक्षेत्र में जो स्वतंत्रता बचा पायी है, उसके पीछे लोकतंत्र के कथित चौथे स्तंभ की भी हाथ रहा है. जो जनमत तैयार करने में अपनी भूमिका का निर्वाह करके विधायिका को निरंकुश नहीं होने देती.
दुविधा वहां शुरू होती है, जब विधायिका के नुमाइंदे इस पूरी प्रणाली को प्रभावित करने के लिए मीडिया को भ्रष्ट करने की कोशिश करते हैं. चाहे कमीशन वाली पत्रकारिता हो या मिशन वाली, दोनों के लिए संसाधनों की जरूरत होती है. आज के दौर में कई मीडिया हाऊस बैंकों से ऋणों से दबे हैं. जिससे निकलने के लिए तकनीकी वित्तीय गड़बड़ी में माहिर खिलाड़ियों का साथ लेते हैं. ये साथ तभी तक चलता है, जब तक सरकारी जांच एजेंसियां आंखे मूंदी रहती है. ऐसे मीडिया हाऊस अकसर राजसत्ता के गलत कामों में भी भागीदारी करने लगते हैं. जब राजसत्ता इनके खिलाफ होती है तो ये मीडिया हाऊस भी “इस्लाम खतरे में है” की तर्ज पर स्वतंत्र पत्रकारिता पर हमले की संज्ञा देने लगते हैं.
मिशन वाली पत्रकारिता के लिए मंझे पत्रकार आजकल जिस मीडिया हाऊस में जाते हैं, वो ऐसे कारपोरेट घरानों के अधीन होते हैं, जिनका सारा व्यापार ही सरकारी बैंकों, शेयर मार्केट के जरिए उगाहे गये पूंजी से चलता है. ऐसे में मिशन वाली पत्रकारिता एक खास टारगेट तक ही सीमित हो जाती है. इस कुचक्र का शिकार पत्रकार से लेकर संपादक तक हो जाते हैं. मीडिया बाजार में बड़ी पूंजी की आवश्यकता ने मिशनरी पत्रकारिता को झकझोर तो दिया है. लेकिन पूरी तरह खरीद लिया है, ये कहना अतिश्योक्ति होगी. खासकर सोशल मीडिया के युग में. मिशन वाली पत्रकारिता को जिंदा रखने में सोशल मीडिया ने अद्भुत योगदान दिया है. हालांकि मिशन वाली पत्रकारिता वही पत्रकार कर पाते हैं, जो आर्थिक रुप से किसी पर आश्रित नहीं हो और उनका एकमात्र पेशा पत्रकारिता ही हो. अन्यथा बाजार की ताकतें अपने चंगुल में ले ही लेती हैं. मीडिया की ताकत पर्दे के पीछे रहने में ही है. पत्रकारिता करने वाले व्यक्ति में अपना चेहरा और नाम दिखाने ललक आ जाये तो उसे पत्रकारिता का पेशा छोड़ देना चाहिए. प्रसिद्धि और अपना चेहरा दिखाने की होड़ अकसर मिशन वाली पत्रकारिता से भटकाने का काम करती है.
सरकारी संस्थानों के पत्रकारों के सामने भी कई अदृश्य शक्तियां होती हैं, जो ऐसी खबरों को करने पर लगाम लगाती हैं, जो वर्चुअल पूंजी और वर्चुअल व्यापारियों के गठबंधन का खुलासा कर सकती हैं. ऐसा नहीं है कि सरकार इन बातों से अनजान है. लेकिन पूंजीवादी बाजार के दबदबे ने इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय सहमति बना ली है. इस नापाक वर्चुअल गठबंधन के खिलाफ अभी तीव्र आक्रोश वाला जनमत तैयार होना बाकी है. जिसके बाद ही सरकार हरकत में आयेगी. ये एक आईना है जिसमें लोकतंत्र के सभी पहरुओं को अपना चेहरा देखना होगा. साथ ही एक दूसरे के चेहरे से नैतिकता का नकाब भी उतारना होगा. इसमें व्यक्ति की जीत होगी और कंलकित संस्थायें हारेंगी.